नई दिल्ली: दुनिया के सबसे अमीर देशों के बारे में ऐसे किसी सवाल का जवाब देना आसान नहीं है. इसको लेकर अमूमन अनुमान ज़ाहिर किए जाते हैं, लेकिन वे सटीक हों, ज़रूरी नहीं. फिर सवाल यह भी तो है कि आप किस तरह की अमीरी की बात कर रहे हैं. आमतौर पर किसी देश की अमीरी का आकलन उसके सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी से लगाया जाता है जो एक निश्चित अवधि में किसी देश की वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन को जोड़कर बनता है. किसी देश की संपत्ति को दर्शाने के लिए इसे एक संकेतक के रूप में देखा जाता है.
यह अर्थव्यवस्था को मापने का वैसा पैमाना है जो सबसे सबसे मशहूर है और ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है. इसमें अन्य बातों के अलावा, यह मालूम हो जाता है कि सरकार को कितना कर हासिल हो रहा है और सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर कितना पैसा ख़र्च कर सकती है. हालांकि इस पैमाने पर लोग सवाल भी उठाते रहे हैं, लेकिन इसके आधार पर दुनिया के दस अमीर देशों के बारे में जानकारी मिल सकती है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विज़ुअल कैपिटलिस्ट के अक्टूबर 2022 के आंकड़ों के हिसाब से दुनिया के दस अमीर देशों की सूची इस तरह बनेगी:-
- अमेरिका, 25.035 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- चीन, 18.321 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- जापान, 4.301 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- जर्मनी, 4.031 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- भारत, 3.469 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- ब्रिटेन, 3.199 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- फ़्रांस, 2.778 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- कनाडा, 2.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- रूस, 2.113 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
- इटली, 1.99 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर
इन आंकड़ों से हमें क्या पता चलता है?
इन देशों की अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है, लेकिन सब कुछ पता नहीं चल पाता. जीडीपी के कुछ आलोचक बताते हैं कि जीडीपी में सबसे अहम तीसरा शब्द प्रॉडक्ट है यानी उत्पाद. इस पैमाने की शुरुआत करने वाले अमेरिकी अर्थशास्त्री सिमोन कुज़नेट्स भी इसको बहुत अहमियत नहीं देते थे. उनका इरादा, 1930 के दशक में अर्थव्यवस्था को समग्र रूप से मापने के लिए एक तरीका खोजने का था ताकि आर्थिक मंदी से देश को बाहर निकालने का कोई पैमाना मिल सके.
इस पैमाने के लिए वास्तव में उत्पादक समझी जाने वाली संपत्ति का आकलन करना था और यह अच्छे जीवनशैली के आकलन का पैमाना था. लेकिन जल्दी ही द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया और प्राथमिकताएं बदल गईं. बेहतर जीवनशैली की जगह जीवन को बचाने की चुनौती सामने थी. अत्यधिक प्रभावशाली ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स के लिए यह जानना आवश्यक था कि अर्थव्यवस्था क्या उत्पादन कर सकती है और युद्ध के दौरान लोगों की खपत के लिए कम से कम कितना चाहिए, बचे हुए उत्पादों से युद्ध का ख़र्च निकालने की चुनौती थी.
यानी अब एक-दूसरे तरह के आकलन की ज़रूरत थी और उसको मापने का उद्देश्य भी बदल चुका था. यह बाद में भी बना रहा. युद्ध के बाद, अमेरिका की दिलचस्पी यह जानने में थी कि उसने जिन देशों को पुनर्निमाण के लिए सहायता दी है, उसका इस्तेमाल किस तरह से हो रहा है. और उसने इसके लिए फिर से जीडीपी को पैमाना बनाया. इसके बाद इस पैमाने को संयुक्त राष्ट्र ने भी माना और यह वैश्विक मानक बन गया.