कश्मीर घाटी में श्रीनगर यूनिवर्सिटी में Y-20 का आयोजन हुआ
इस सम्मेलन में 17 युवा प्रतिनिधिमंडल पहुंचे थे जिसमें तुर्की भी शामिल था
सवाल किए जा रहे हैं कि क्या अब कश्मीर मुद्दे को तुर्की ने छोड़ दिया है
नई दिल्ली: पिछले दिनों कश्मीर घाटी में श्रीनगर यूनिवर्सिटी में कुछ ऐसा हो रहा था जो पाकिस्तान के लिए झटके से कम नहीं था। भारत जो इस समय जी-20 का अध्यक्ष है, उसकी अध्यक्षता में यहां पर युवा सम्मेलन यानी Y-20 का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में 17 युवा प्रतिनिधिमंडल पहुंचे थे जिसमें एक दल तुर्की का भी था। हमेशा पाकिस्तान के लिए कश्मीर की आवाज उठाने वाले तुर्की ने उसे इस मौके पर अकेला कर दिया। पाकिस्तान को इस बात पर खासी आपत्ति है कि आखिर क्यों भारत कश्मीर में इतने बड़े अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन कर रहा है। तुर्की की हिस्सेदारी के साथ ही सवाल उठने लगे कि क्या अब कश्मीर मसला इस देश के लिए कुछ भी नहीं है और क्या तुर्की ने पाकिस्तान को किनारे कर भारत का हाथ थाम लिया है?
एजेंडे से बाहर हुआ कश्मीर
प्रोफेसर मुक्तदर खान जो अमेरिका स्थित डेलावेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं, उन्होंने इस पर अपनी राय व्यक्त की। उन्होंने एक यू-ट्यूब चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा कि राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के आने के बाद से तुर्की के लिए विदेश नीति काफी अहम हो गई थी। दुनिया जानती है कि कैसे तुर्की ने फलस्तीन को अपने मतलब के लिए प्रयोग किया था। 10 साल पहले तुर्की ने गाजा के लिए राहत भेजी थी। इसकी वजह से इजरायल के साथ रिश्ते काफी बिगड़ गए थे। मगर अब तुर्की का रुख काफी बदल गया है। अब वह इजरायल के साथ रिश्ते ठीक करने में लगा है और फलस्तीन उसके एजेंडे से कहीं बाहर हो गया है।
तो मजबूरी था कश्मीर मुद्दा
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने अपने कार्यकाल में मिस्र के साथ संबंध तोड़कर मुस्लिम ब्रदरहुड को तरजीह दी थी। एर्दोगन उस समय अपने नागरिकों को इस्लाम के प्रति और कट्टर बनाना चाहते थे ताकि ये उनका वोट बैंक बन सकें। कश्मीर मसला भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान भी एर्दोगन वाली राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे। साल 2018 में जब उन्होंने चुनाव लड़ा तो वह फाटा के दौरे पर गए जहां पर कट्टरपंथी उन्हें देखकर खुश होते थे। इमरान और एर्दोगन दोनों ही इस्लामिक नेताओं के बीच काफी लोकप्रिय हो गए थे। ये दोनों नेता जल्द ही दोनों अच्छे दोस्त भी बन गए थे। उस वजह से ही तुर्की ने कश्मीर के मसले को अपनाना शुरू कर दिया था।
एक मुलाकात ने सबकुछ बदल दिया
इमरान और पाकिस्तान की मदद करने के मकसद से तुर्की ने उन पाकिस्तानी प्राथमिकताओं को विदेश नीति में जगह देनी शुरू कर दी जो भारत विरोधी थीं। तुर्की कश्मीर को अपने घरेलू मकसद के लिए प्रयोग करने लगा था। मगर जब सिंतबर 2022 में शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) सम्मेलन का आयोजन हुआ तो सब बदल गया। उज्बेकिस्तान के समरकंद में जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एर्दोगन की मुलाकात हुई तो एक नया रंग देखने को मिल रहा है। मुक्तदर खान के मुताबिक इसके बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में एर्दोगन ने पहली बार कहा कि कश्मीर मसले को भारत और पाकिस्तान को सुलझाना होगा। इसके बाद जब तुर्की में भूकंप आया तो भारत सबसे पहले मदद के लिए आगे आया। वहां की जनता ने इसे समझा और भारत की तारीफ की।
तुर्की के लिए अब अहम नहीं कश्मीर
उनका मानना है कि कश्मीर का मसला अब शायद तुर्की के लिए बहुत ही निचले स्तर का मामला बन चुका है। शायद इस वजह से ही तुर्की ने जी-20 में आने का फैसला लिया है। पाकिस्तान भले ही जी-20 के कश्मीर में आयोजन को लेकर भारत पर हमला कर रहा हो लेकिन उसने यह जानने की कोशिश नहीं की कि कौन-कौन आ रहा है। तुर्की शायद पाकिस्तान के लिए जी-20 में किनारे होना पसंद नहीं करेगा। जी-20 एक शक्तिशाली समूह है। ऐसे में वह एक ऐसे देश के लिए संगठन में अलग-थलग नहीं होना चाहेगा जो इसका हिस्सा ही नहीं है। पाकिस्तान में अब दूसरे देशों को प्रभावित करने में समर्थ नहीं है। कश्मीर सिर्फ पाकिस्तान के साथ रिश्तों के लिए तो तुर्की की नीति का हिस्सा था।